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शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरताः मुस्लिम सशक्तिकरण की कुंजी

हमारा देश भारत, जहां विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के लोग रहते हैं, में हर समाज के लोगों को समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। लेकिन वर्तमान में, देश में एक ऐसा माहौल बन रहा है जो धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, को हाशिए पर धकेल रहा है और उन्हें अन्य समाजों से अलग-थलग करने के साथ-साथ अपने ही देश में पराया बनाने की रणनीति को मजबूत कर रहा है। इस परिस्थिति में सवाल उठता है कि इस अन्याय के खिलाफ लड़ाई कैसे लड़ी जाए और अल्पसंख्यक समुदाय अपनी स्थिति को कैसे सुधार सके। मुसलमानों के साथ हो रहे भेदभाव और हिंसा की घटनाएं आज की सच्चाई बन चुकी हैं। इसके लिए राजनीतिक नीतियों और सामाजिक पूर्वाग्रहों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बहुसंख्यकवादी विचारधारा ने न केवल मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत को बढ़ावा दिया है, बल्कि इसे समाज में एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में प्रस्तुत किया है। इस नफरत को रोकने और मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने के लिए एक ठोस रणनीति की आवश्यकता है।

सबसे पहली जरूरत यह समझने की है कि केवल विरोध प्रदर्शन या नारों से समस्या का समाधान नहीं होगा। किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ाई में तीन प्रमुख रास्ते हो सकते हैं। पहला, लेखन और विचार-विमर्श के जरिए अपनी आवाज उठाना। हालांकि, यह तरीका सीमित प्रभाव डालता है क्योंकि इससे केवल उन्हीं लोगों को प्रभावित किया जा सकता है जो पहले से समान विचारधारा रखते हैं। साथ ही, इस तरह की बहसों में अक्सर असली मुद्दे से भटकाने के लिए इतिहास और धार्मिक तर्कों का सहारा लिया जाता है। दूसरा तरीका आंदोलन और प्रदर्शन हो सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह प्रभावी माध्यम है, लेकिन जब सत्तारूढ़ दल अल्पसंख्यक समुदाय को केवल वोटों तक सीमित कर दे और बहुसंख्यक समुदाय के नाम पर वोट की राजनीति करे, तो इस प्रकार की रणनीति अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाती। इसके अलावा, मुसलमानों के विरोध प्रदर्शन अक्सर समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते हैं, जिससे बहुसंख्यक समुदाय और अधिक विरोधी हो सकता है। तीसरा और सबसे प्रभावी तरीका यह होगा कि मुसलमान अपनी सामुदायिक छवि को सुधारने और सामाजिक पूर्वाग्रहों को कम करने की दिशा में काम करें। इसके लिए शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मुसलमानों को अपनी ऊर्जा रोजगार, शिक्षा और सामाजिक विकास पर केंद्रित करनी होगी।

शिक्षा के क्षेत्र में, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और आधुनिक मदरसों की स्थापना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ऐसे संस्थानों को न केवल मुसलमानों के लिए, बल्कि अन्य समुदायों के लिए भी खोलना चाहिए। इसके अलावा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया जैसे संस्थानों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त बनाने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। आर्थिक मोर्चे पर, मुसलमानों को अपने संसाधनों का सामूहिक उपयोग करना होगा। आज की परिस्थितियों में, जब सरकारी नीतियां उनके पक्ष में नहीं हैं, तो स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता ही उनकी प्रगति का आधार बन सकती है। कौशल विकास, स्वरोजगार और उद्यमशीलता को बढ़ावा देकर वे अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकते हैं। इतिहास से सबक लेना भी इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारतीय समाज में समय-समय पर सुधारवादी आंदोलनों ने बड़े बदलाव लाए हैं। ब्रह्म समाज, आर्य समाज और अन्य आंदोलनों ने न केवल समाज के भीतर सुधार किया, बल्कि लोगों की सोच को भी बदला। मुसलमानों को भी इसी प्रकार के आंदोलन की आवश्यकता है, जहां प्राथमिकता शिक्षा और सामाजिक सुधार को दी जाए।

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इसके साथ ही, मुसलमानों को यह समझना होगा कि धार्मिक पहचान को अधिक महत्व देना समाज में अलगाव को बढ़ावा दे सकता है। इसके बजाय, उन्हें अपनी पहचान को शिक्षा, कौशल और सामुदायिक सेवा के माध्यम से मजबूत करना चाहिए। एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुसलमानों को यह दिखाना होगा कि वे समाज के लिए उपयोगी और आवश्यक हैं। बॉलीवुड, खेल, और संगीत जैसे क्षेत्रों में मुसलमानों की उपलब्धियां इस बात का प्रमाण हैं कि समाज में प्रतिभा और कौशल को हमेशा सराहा गया है। अगर मुसलमान शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन और अन्य प्रमुख क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति बढ़ा सकें, तो उनकी सामाजिक छवि में सुधार होगा।

पवित्र कुरान की सूरह रअद आयत नंबर 17 में जीवन के इसी सिद्धांत को बताया गया है कि “दुनिया में वही व्यक्ति स्थापित होता है जो लोगों के लिए उपयोगी होता है।” यही सिद्धांत दुनिया के समुदायों और समाजों पर भी लागू होता है। किसी भी समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह आत्मनिरीक्षण करे कि उसके अधिकांश लोग अन्य समाजों के लिए या दूसरे शब्दों में इंसानियत के लिए कितने उपयोगी हैं।

सामुदायिक नेतृत्व की भूमिका भी यहां अहम हो जाती है। वर्तमान समय में, मुसलमानों को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो आत्मनिर्भरता, सुधार और आधुनिकता को प्राथमिकता दे। यह नेतृत्व समुदाय को एक नई दिशा में ले जा सकता है, जहां प्राथमिकता संघर्ष के बजाय प्रगति पर हो। आज मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अपनी लड़ाई को संघर्ष से सशक्तिकरण की ओर ले जाएं। यह लड़ाई केवल उनके अधिकारों की नहीं, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखने की भी है। मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनके प्रयास न केवल उनकी स्थिति को सुधारेंगे, बल्कि समाज में समरसता और एकता को भी मजबूत करेंगे। इसलिए, आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमान आत्मनिरीक्षण करें और सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाएं। उन्हें अपनी ऊर्जा को नकारात्मक संघर्ष में लगाने के बजाय सकारात्मक बदलाव की ओर केंद्रित करना होगा। जब तक यह संभव नहीं होता, तब तक नफरत और अन्याय के खिलाफ लड़ाई अधूरी रहेगी।

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लेखक: मौलाना ए.आर. शाहीन कासमी (जनरल सेक्रेटरी, वर्ल्ड पीस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली)

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